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शहर के साथ चले रौशनी के साथ चले / ख़ुर्शीद अहमद 'जामी'

शहर के साथ चले रौशनी के साथ चले
तमाम उम्र किसी अजनबी के साथ चले

हमीं केा मुड़ के न देखा हमीं से कुछ न कहा
इस एहतियात से हम जिं़दगी के साथ चले

तुम्हारे शहर में अनजान सा मुसाफ़िर था
तुम्हारे शहर में जिस आदमी के साथ चले

ग़मों ने प्यार से जिस वक़्त हाथ फैलाए
तो सब को छोड़ के हम किस ख़ुशी के साथ चले