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शहर तो है ख़ामोश बराबर बोल रहीं सड़कें / बल्ली सिंह चीमा
Kavita Kosh से
शहर तो है ख़ामोश बराबर बोल रहीं सड़कें ।
भारी बूटों के नीचे दम तोड़ रहीं सड़कें ।
चौराहों पर वर्दीधारी भीड़-भड़क्का है,
क्या आफ़त है डरते-डरते बोल रहीं सड़कें ।
शाम को ही यह सो जाता है जैसे मुर्दा हो,
शहर को क्या मालूम कि क्या कुछ भोग रहीं सड़कें ।
फ़ुटपाथों की वीरानीस े आज मुख़ातिब हैं,
संगीनों के साए में भी बोल रहीं सड़कें ।
पंख लगे होते तो शायद शहर से उड़ जातीं,
सोच रही हैं सोचों में पर तोल रहीं सड़कें ।