भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर मुझको तेरे सारे मुहल्ले याद आते हैं / अमित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर मुझको तेरे सारे मुहल्ले याद आ्ते हैं
दुकाँ पर चाय की बैठे निठल्ले याद आते हैं

म्यूनिसपैलिटी के बेरोशन चराग़ों की कसम मुझको
उठाईगीर जेबकतरे चिबिल्ले याद आते हैं

तबेलों और पिगरी फार्म का अधिकार पार्कों पर
खुजाती तन मिसेज डॉग्गी औऽ पिल्ले याद आते हैं

मैं हाथी पार्क के हाथी पे रख कर हाथ कहता हूँ
नवोदित प्रेम के कितने ही छल्ले याद आते हैं

वो इन्वर्टर का अन्तिम साँस लेकर बन्द हो जाना
जब आई रात में बिजली तो हल्ले याद आते हैं

सड़क के उत्खनन को भूल से यदि भूल भी जाऊँ
तो टूटे दाँत और माथे के गुल्ले याद आते हैं

गुज़रता है कभी जब काफ़िला नव-कर्णधारों का
मुझे सर्कस के जोकर से पुछल्ले याद आते हैं

सिविल लाइन्स में है मॉल-ओ-मल्टीप्लेक्स की दुनियाँ
के दिन ढलते खिलीबाँछों के कल्ले याद आते हैं