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शहर में एक बस्ती थी / अच्युतानंद मिश्र

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शहर में एक बस्ती थी
जहाँ लोगों ने
ठंडी आग जलाई थी
मशाल को शाल की तरह
ओढ़ रखा था
टिमटिमाती हुई आँखों की चमक
मालिक के सिरहाने दबी थी ।

सपने फटी हुई रजाई के
भूगोल से शुरू होकर
घिसी हुई चप्पलों तक
आते-आते ख़त्म हो जाते

दौड़ते-भागते ख़ून का रंग
ख़ून से बहुत दूर चला
आया था
और ऐसे में
साँस का अनवरत चलना
विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती थी

‘‘ये जीवन विज्ञान के नियमों के बाहर
विज्ञान को मुँह चिढ़ाता ।’’
यह शहर था
धूप-धुध, ओस, हवा और बारिश
से महरूम

आदमी की निगाह में चीज़ें
छोटी-बड़ी थीं

रात को काम से लौटते हुए
जीवन पहाड़ों की ऊँचाइयों में
तब्दील हो जाता
फिसलते हुए क़दम
ख़ून का रंग बता देते
रोशनी हवा की दोस्त थी
हवा का रूख़ बदलते
रोशनी का रंग बदल जाता ।

दिन एक धुएँ से शुरू होकर
उबले हुए आलू तक आते-आते
सीझने लगता
और उससे पहले
पिघलती हुई आत्माओं
का विलाप
रात की घोषणा कर देता

‘‘रात एक विलाप थी
रात एक पतझड़ था ।’’
मौसम के बदलने की उम्मीद
हर रात शुरू होकर
रात को ही ख़त्म हो जाती

शहर की यह बंजर बस्ती थी
जहाँ बाँझ सपने उगते
नंग-धड़ंग बच्चे थे
टीन की कटोरी थी
जिसमें दूध और पानी का हिसाब
एक सवाल था ।

सवाल यह भी था
कि वह बच्चा
किस देश, किस मिट्टी
किस हवा, किस शहर का है
सवाल था कि उसकी माँ
किस युग से चली आई थी
उसका पिता पीठ के बल रेंगकर
शहर की आलीशान कोठियों में
क्यों चिराग जला रहा था
सवाल था कि
शहर में बस्ती क्यों थीं
ये सवाल उदास आँखों की उदासी
हँसते चेहरों के उजास का
पता देते थे ।

शहर जिनके पाँव तले थी
ये बस्तियाँ,
जिनकी छाती पर पैर रख
शहर जवान हुए