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शहर में क्यूँ उठी राख की आँधियाँ / पूजा श्रीवास्तव

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शहर में क्यूँ उठी राख की आँधियाँ
लग रहा है कि जलने लगीं बस्तियाँ

इस सियासत से तो है भली दूरियाँ
इस समंदर ने निगली है सौ कश्तियाँ

हिज्र की शम्मा जलती रही रात भर
साथ रोती रहीं रात भर सिसकियाँ

मेरा परदेसी आया नहीं लौटकर
मैं सजाती रही रोज़ रंगोलियाँ

एक लड़की के सपने हैं कितने भला
डोली बारात हों और शहनाइयाँ

नौजवां हम शिकस्तों से डरते नहीं
बारिशों में उड़ा लेते हैं तितलियाँ

वार करते हो तो सामने से करो
या सुनाते रहो पीठ को धमकियाँ

जान लेना हो तो छीन लेना कलम
हमको करती नहीं हैं असर गोलियाँ

है मुसलसल सफ़र साहिलों की तरफ
उस से पहले तो थकती नहीं कश्तियाँ

घर में चाहत भरोसे की दीवार हो
और आशाओं की हों बनी खिड़कियाँ

सब हँसे मुस्कुराएं कोई शोर हो
हमको भाती नहीं है ये मायूसियाँ