शहर मेरा / हरीश बी० शर्मा
पहला
हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहाँ नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं- जाने भी दो यार!
या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार
दूजा
मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आर०ओ०बी० पर मिलेगा
सबसे ऊँची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियाँ
मैं रुकता हूँ
रात कुछ बाक़ी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सब कुछ अपने मन जैसा
अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं...
यार! ये शहर इतना छोटा क्यों है
तीजा
उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूँ कविता से
कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल