शहर से बहिष्कृत / सुरेन्द्र रघुवंशी
मेरा आगमन शहर की छाती पर
अतिक्रमण के पाँव थे
शहर की अनिच्छा जिसे असंगत बताती रही
काँच सी चिकनी सड़कें
मुझे इन्द्रपुरी की कथा की याद दिलाती थीं यहीं आकर सार्थक हो रहे थे
सफ़ाई के विविध नारे
मेरी मन की निर्मल झील को अनदेखा कर
फटी पुरानी कमीज़ को इंगित कर
लोग मुझे गन्दा कहे जा रहे थे
आँखों के द्रव्य को देखने वाली दृष्टि
मर गई थी अल्पायु में ही
और लोग दृष्टि सम्पन्नता का पुरस्कार पा रहे थे
मैं शहर के स्वप्न लोक के
आकर्षक क़िस्से सुनकर
अपने खेत छोड़कर चला आया शहर मे
पर शहर खड़ा था तराजू लेकर
और मेरे पास कोई वज़नी बाट नहीं था
शहर मुझे धकिया रहा था
गरिया रहा था नाक भौहें सिकोड़कर
मैं भी शहर से बाहर निकलने का रास्ता
तलाश रहा था चौन्धयाई आँखों से
पर वह मुझे मिल नहीं पा रहा था