Last modified on 16 जुलाई 2013, at 04:27

शहर / मिथिलेश श्रीवास्तव

कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती
यह शहर ही ऐसा है

मौन बहती हुई नदी कुछ कहती नहीं
चहचहाती हुई चिड़िया छू लेती है आकाश
कोलाहल उसे डराता है यहाँ
एक आवाज़हीन जीवन के अभ्यस्त लोग
पसन्द करते हैं साँस रोककर एक कोने में खड़े हो जाना
खाँसना और छींकना मायूस बादशाह की मर्जी पर छोड़
क्षमा की याचना बार-बार करते हैं
पत्थर हुई सड़क उड़ती नहीं धूल
सिंथेटिक हुई हरी और मुलायम यहाँ की घास
घास पर चलना मना है घास सूख जाती है ।