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शहीद–ए-आज़म के नाम एक कविता / विपिन चौधरी

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उस वक़्त भी होंगे तुम्हारी बेचैन करवटों के बरक्स
चैन से सोने वाले
आज भी बिलों में कुलबुलाते हैं
तुम्हारी जुनून मिजाज़ी को "ख़ून की गर्मी” कहने वाले

तुमने भी तो दुनिया को बिना परखे ही जान लिया होगा
जब
कई लंगोटिए यार तुम्हारी उठा-पटक से
परेशान हो
कहीं दूर छिटक गए होंगे

तुम्हारी भीगी मसों की गर्म तासीर से
शीशमहलों में रहने वालों की
दही जम जाया करती होगी

दिमागी नसों की कुण्डी खोले बिना ही तुम
समझ गए होगे कि
इन्सान-इन्सान में जमीन आसमान जितना असीम
फ़र्क भी हो सकता है

अपने चारों ओर बँधी बेड़ियों
के भार को सँभालते हुए
कोयले से जो लिखा होगा तुमने
उसे पढ़
कईयों ने जानबूझ कर अनजान बन
अपनी गर्दन घुमा ली होगा
कई ठूँठ बन गए होंगे और
कई बहरे, काने और लंगडे बन
अपनी बेबसियों का बखान करने लगें होंगे

परेशान आज भी बहुत है दुनिया,
ज़रा-सा कुरेदने पर
लहू के आँसुओं की
खड़ी नदियाँ बहा सकती है
पर क्राँति की बात दूसरी-तीसरी है

जनेऊ अब भी खीज में उतार दे कोई
पर वह बात नहीं बनती
जो मसीहाई की गली की ओर मुड़ती हो

’क्राँति’ बोल-वचन का मीठा और सूफ़ियाना मुहावरा बन
कईयों के सर पर चढ़
आज भी बेलगाम हो
भिनभिनाता है

लहू में पगे शेरे-पंजाब की
दिलावरी को याद करने के लिए
पंजों के बल खड़े होना पड़ता है
पर
हमारी तो शुरुआत ही लड़खड़ाने से होती है

हम हर पन्ने को शुरू से लेकर अंत तक पढ़ते हैं
और
लकीर को लकीर ही कहते है

रटे-रटाए प्रश्नों के बीच आए
एक टेढ़े प्रश्न को बीच में ही छोड़
भाग खड़े होते हैं

जब क्राँति का अर्थ समझने के लिए इतिहास की पुस्तकें उठाते हैं
और सिर्फ़ उनकी धूल ही झड़ती है हमसे

हमारे समझने-बूझने का
पिरामिड अब इतना बौना हो गया है
कि हमारी मुंडी क्राँति की चौखट से
टकराने लगती है

रात-बेरात का चौकन्नापन और
लहू को निचोड़ कर
बर्फ़ की सिल्ली बना देने
का सिद्धहस्त शऊर
अब कारोबारी धंधे पर ही अपनी सान चढ़ाता है

शहीद–ए–आज़म,
इंसान से पिस्सु बनने की प्रक्रिया को
तुम नही देख पाए
यही शुक्र है

घुटनों के बल पर खड़े हो
शुक्र की इन्ही सूखी रोटियों को
खा-खा कर
हमारी नस्लें अपने आगे का
रोज़गार बढ़ाएगी