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शहीद की विधवा / अरुणिमा अरुण कमल

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क्या कीजिए, कितना छुपाइए
दर्द छलक ही जाता है!

घाव उभर आता है दिल में ,
दर्द छलक आता आँखों में,
टीस उठे तो संभले मन ना
कसक उठे हर पल बाहों में;

बावरे नैना खोजें तुझको,
बिछी रही राहों पर हर पल ,
दो दिन को बस गले लगाया
और हुए आँखों से ओझल;

धर्म निभाया राष्ट्र पुत्र का ,
गौरव दिया, मातृ गोद सपूत का,
आलिंगन कर लिया मृत्यु को,
और मैं बस बनी शहीद की विधवा!

तेरी श्रद्धा ही, मेरी श्रद्धा ,
साथ मेरे, तेरी माँ है वृद्धा
गर्भ में मेरे अंकुर तेरा,
तड़प रहा देने को कंधा !

इतनी भी तो क्या जल्दी थी,
उतरी नहीं मेरी मेहंदी थी,
माथे की बिंदिया पूछ रही है,
क्या कोई मेरी ग़लती थी!

जीवन, मिथ्या न बनने दूँ मैं,
आँखों के आँसू, को पी लूँ मैं,
जो छोड़ गए तुम काम अधूरा,
उस काम को आगे पूर्ण करूँ मैं !

जिस धरती पर, प्राण हैं त्यागे,
मेरे लिए क्या, उसके आगे,
तेरे दिल के धागों से अब तो,
जुड़े मेरे संग, देश के धागे!

करूँ नमन मैं राष्ट्र प्रहरी को,
लांघूँ अब घर की देहरी को,
करूँ समर्पित स्वयं को पहले,
तब करूँ तैयार नयी कड़ी को !


तेरी विधवा अब निकल गई है,,
परंपराएँ पिघल रही हैं
बेटा तेरा गर्व करेगा,!
राष्ट्र समर्पित सदा रहेगा

तुम-सा स्वामी पाकर मैं भी,
सौ जनमों तक धन्य हुई,
तू ऊपर बैठ बतलाना,
क्या तेरी सभिधा शांत हुई?