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शांति दिवस / कल्पना लालजी

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कितने आंसू कितने काँटे
आज राह में बिछे हुए हैं
होठों पर मुस्कान लिए
मानव सारे मेरे हुए हैं
एक इंच भूमि की खातिर
भाई भाई से अड़े हुए हैं

शांति किधर है जिसे खोजते

शांति दिवस हम सदा मना कर
शांत-शांत हम कहते सबको
चारों ओर अशांति जगाकर
भूख बढ़ रही हर तन की
प्यास शांत होती न मन की
अतृप्त आशाएँ मुख फाड़े
आती संतुष्टि के आड़े
रोम-रोम अब थर्राता है
अंधकार बढ़ता जाता है
अंत कहीं न नज़र आएगा
अंत विश्व का हो जाएगा
रोज़ रोज़ की यह लड़ाई
दिन प्रतिदिन की हाथापाई

हमें कहाँ पर ले जाएगी
मृत्यु कभी न बाज़ आएगी
फिर जब शांति दिवस आएगा
महलों पर झंडा फहरेगा
नेताओं के भाषण होंगे
समाचार और चित्र छपेंगे
देश विदेश नेता भटकेंगे
चंदों पर चंदे टूटेंगे

भूखे कहीं मृत्यु लूटेंगे
कहीं बैंक पर बैंक भरेंगे
कहीं न अन्न का दाना होगा
कहीं अन्न मनमाना होगा
आंसुओं में कोई मुस्काएगा
चिथड़ों में तन को छुपाएगा
फिर अंत दिवस का हो जाएगा
बालक बिलख-बिलख रोएगा
टूटे मिट्टी के कुल्हड़ का
दो घूंट दूध तरसाएगा
खिंचती आंतों का दर्द उसे
भूमि पर पटकाएगा
आंसू भरे सूखे होठों पर
अंतिम प्रश्न उभर आएगा
अगला शांति दिवस कब आएगा
अगला शांति दिवस कब आएगा