शाख़ों पर लौट आये मौसम कोंपलों के/ विनय प्रजापति 'नज़र'
लेखन वर्ष: २००४/२०११
शाख़ों पर लौट आये मौसम कोंपलों<ref>नये बूटे, buds</ref> के
न क्यों फिर चमन में खिल रहे' गुल दो दिलों के
मेरी यह उम्र जायेगी तेरे लिए ज़ाया<ref>व्यर्थ, बेक़ार, waste </ref>
गर यह फ़ासले रहेंगे यूँ ही मीलों के
तुम नहीं तो रातभर ये चाँदनी उदास रहती है
सभी ताज़ा कँवल<ref>कमल के फूल, flowers of lotus</ref> सूख गये हैं झीलों के
ज़ब्रो-सब्र<ref>प्रयत्न और सहनशीलता, trial and calmness</ref> से क़ाबू आया है मेरा दिल
लम्हा-लम्हा बढ़ते हैं दौर मुश्किलों के
मैं दोस्तों की भीड़ में तन्हा रहता हूँ
मुझको रंग फ़ीके लगते हैं महफ़िलों के
संदली धूप की छुअन का यह ऐजाज़<ref>जादू, magic</ref> है
ख़ुशबूओं से भर गये जाम सभी गुलों के
मैं यह बात सोच के जल जाता हूँ सुम्बुल
तुम्हें तीर चुभते होंगे किन मनचलों के
‘नज़र’ आज वाइज़ है बहुत ख़ामोश, वो क्यों?
क्या उसके पास हल नहीं हैं मसाइलों<ref>मुश्किलें, odds</ref> के