भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शाखे-शजर से पत्ते गिरे जब भी टूट के / शहरयार
Kavita Kosh से
शाखे-शजर से पत्ते गिरे जब भी टूट के
रोईं तमाम खल्के-ख़ुदा फूट-फूट के
ये मंज़िले-मुराद थी इंसान की अगर
इंसान क्यों उदास है साये से छूट के
सहरा की सल्तनत है हुदूदे-निगाह तक
बादल हज़ार बरसे ज़मीनों पे टूट के
तन्हा उफ़क़ पे तेग़ से हमला करे हवा
जब चाहे आये और उसे ले जाये लूट के
सच की सलीब तोड़ दी अहले-सलीब ने
सरशार इस क़दर हुए नश्शे से छूट के।