शादी खोजने निकलिए तो समाज बाजा बजा देता है / दयानन्द पाण्डेय
बेटी का पिता होना आदमी को राजा बना देता है
शादी खोजने निकलिए तो समाज बाजा बजा देता है
राजा बहुत हुए दुनिया में पर बेटी का पिता वह घायल राजा है
जिस के मुकुट पर हर कोई सवालों का पत्थर उछाल देता है
हल कोई नहीं देता सब सवाल करते हैं जैसे प्रहार करते हैं
बेटी का बाप है आख़िर हर किसी को सारा हिसाब देता है
लड़के का बाप तो पैदाईशी ख़ुदा है लड़की के पिता को
यह समाज सर्कस की एक चलती फिरती लाश बना देता है
लड़का चाहता है विश्व सुंदरी नयन नक्श तीखे नौकरी वाली
मां चाहती है घर की नौकरानी बेटे का बाप बाज़ार सजा देता है
नीलाम घर सजा हुआ है दुल्हों का फरमाईशों की चादर ओढ़े
कौन कितनी ऊंची बोली लगा सकता है वह अंदाज़ा लगा लेता है
विकास समानता बराबरी क़ानून ढकोसला है समाज दोगला है
लड़कियाँ कम हैं अनुपात में पर दाम लड़कों का बढ़ा देता है
पढ़ी लिखी हैं सुंदर हैं नौकरी वाली भी हुनर और सलीक़े से भरपूर
जहालत का मारा सड़ा समाज उन्हें औरत होने की सज़ा देता है
उम्र बढ़ाती हुई बेटियाँ ख़ामोश हैं, पिता सिर झुकाए बैठे हैं
बेरहम वक्त उन के सुलगते अरमानों का ताजिया उठा देता है
बात करते हुए वह आकाश देखता है, बोलता कम टटोलता ज़्यादा है
लड़के का बाप है उस की ऐंठ अकड़ और अहंकार यह बता देता है
मसाला खाते शराब पीते भईया यहाँ वहाँ मुंह मारने में टॉपर हैं
बेटे का बाप उसे हुंडी समझता है शादी के बाज़ार में भजा देता है
सिर के बाल भी ग़ायब चेहरे पर अय्याशियों के भाव अटखेलियाँ करते
आंख से दारु महकती है बाप का जलवा उसे मंहगा दूल्हा बना देता है
जितने ऐब हैं ज़माने में सभी से सुसज्जित है हर कोई जानता समझता
लेकिन बेटे का बाप अंधा होता है उसे सारे गुणों की खान बता देता है
पंडित है, लग्न लिस्ट तमाम चोंचले भी बता तू कहां-कहाँ फिट होता है
आप को नहीं मालूम कोई बात नहीं इवेंट मैनेजर यह सब बता देता है
संस्कार और रिश्ता नहीं अब तड़क भड़क है इवेंट का तमाशा है
शादी के रिश्ते को यही इवेंट करोड़ों अरबों का व्यापार बना देता है
आदमी किश्तों में सांस लेता है टूटता बिखरता है और मर जाता है
यह शादी नहीं फांसी की रस्म है जालिम समाज हर कदम बता देता है