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शापमुक्त होने तक / राजेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
ऐसी हर खिड़की पर
जो बाहर की ओर खुलती है
लटके हैं कई-कई चेहरे ।
अंकित है हर एक पर
अभिशापित होने का भाव ।
बहुतों ने
आँख के गुलेल से
दृष्टि के पत्थर फेंक कर
इन पर अपना निशाना
आजमाना चाहा;
कुछ सफ़ल भी हुए
लेकिन इन चेहरों पर अंकित
भाव नहीं बदले हैं
हाँ, मुद्राएँ ज़रूर बदली हैं ।
शायद
इन्हें तलाश है किसी ऐसे-
दृष्टि के स्पर्श की
जो शीशे-सा चटका दे इन्हें
और फिर हर चटके चेहरे को
शाप-मुक्त होने तक
यों ही लटका रहने को
उनके हाल पर छोड़ दे ।