शाप / आलोक कुमार मिश्रा
ये जो चुभती हैं तुम्हें,
तुम्हारी आँखों में पसरे उपेक्षा के रेगिस्तान में
उगी मेरी ही कामनाओं की नागफ़नी हैं।
समझा करो प्रिय,
आख़िर वे नरम घास या फूल कैसे बनतीं
जब पा न सकीं तुम्हारे अपनत्व से भरे स्पर्श का ताप,
तुम्हारी नेह की कुछ बूँद और गेह की मिट्टी।
ये तो फल है मेरी प्रतीक्षा के तप से उपजी शक्ति का
जो खड़ा हूँ लिए इतना हरापन।
ये सारे काँटे अवलंब बनेंगे एक दिन
जिन पर लहराएंगी मेरे प्रेम की पताकाएँ।
एक बात कहूँ-
ये तो कमाल है तुम्हारी अनुपस्थिति का,
जिसके नाश की कामना से
सभी रंध्र किये बंद बचाए हुए हूँ खुद को।
कहाँ बचा पाता स्वीकार में यूँ
भाप-सा उड़ गया होता कब का।
हालाँकि कभी भी चाहा नहीं है मैंने
इस तरह बचे रहना,
प्रेम में बच जाना एक शाप ही तो है।