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शामों ने आकर बिखराया क्यारी-क्यारी केसर / मालिनी गौतम
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थकी-थकी सी घूम रही है
कहीं शाम सडकों पर ।
दिन के बोझे को ढो-ढोकर
दुहरी हुई कमर
आँचल के कोने में बाँधे
अनगिन घड़ी-पहर
रातों के कानों में जाने
फूँक रही क्या मन्तर ।
घायल दिन के तलवों पर
ठण्डक का लेप लगाती
ग़ुमसुम ख़ुशियों के डेरों पर
प्रेम-पत्र लिखवाती
चौखट-चौखट,आँगन-आँगन
छिड़क रही है अत्तर ।
फटे-पुराने पन्नों-से दिन
उड़ते इधर-उधर
गले लगाने आतुर बैठी
काँटों भरी डगर
शामों ने आकर बिखराया
क्यारी-क्यारी केसर ।