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शाम का गीत / नवनीता देवसेन

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तुम्हारे नाम की प्रभा ने ज्योतिर्मय कर दी है शाम
स्निग्ध हँसी में बिछा दिया है मख़मल का बिछौना
दोनों आँखों में छेड़ दिया है तुमने शाम का गीत
नक्कारख़ाने की मानिंद दूर तक तैरता जाता है वह स्वर
अब चाहिए फूल, यह शाम फूलों की शाम है
आसमान के बगीचे में कांतिमय तारे-फूल खिल उठेंगे
खोई हुई गंध बनकर फिर आएगा मुलायम अंधेरा
झर जाएंगे उजाले के कोमल फूल आँखों के बिछौनों पर
ठीक हृदयविभा-सी स्निग्ध, उज्ज्वल तारों की सुरभि
बिला जाएगी हँसी के मख़मल में।
मैंने अंजलि में थाम रखा है शाम का सुख
थरथराती गुनगुनी गौरैया, मुलायम, जीवंत, पक्षधर
अस्थिर व्याकुल पहर,
शाम के गीत और नक्षत्रों की सुगंध में
उतर आती है थरथराती रात
अंजुरी-बंध में कांपती है पहर के डैनों की उड़ान
ज़रा-सा अनमना होते ही
उंगलियों की सींखें तोड
उड़ जाएगी लक्ष्यहीन शून्य में -
अधखुली अंजुरी में पड़ी रहेगी गुनगुनी सिहरन
अशेष प्रार्थना की तरह पड़ा रहेगा अफ़सोस
इसीलिए मैं साँस रोक कर
इसीलिए मैं इतनी व्याकुल और अतृप्त रह रही हूँ।


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी