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शाम की निराशा / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
शाम सहमी सी उतर
रही है
उसके गहराते ही
उड़ जायेंगे परिंदे
अपने अपने घोसलों को
दिन ने भर दिए होंगे
उनके जरा से गोदाम
जिस पर करेंगे उसके
बच्चे गुजारा
या बड़े गोदामों में
सड़ गए होंगे दाने
या पानी ना भर गया हो
या फेंक ना दिए गए हों
रेल की पटरी पर
नहीं चुग पाई है
चिड़िया आज भी
रंग दानों का काला पड़ गया
और मर चुका है
आँख का पानी
शाम गुनाहगार सी
उतर रही है
रात घोसलों से
भूखे बच्चों की
आवाजें बहुत आती हैं