शाम के वक़्त कभी घर में अकेले न रहो!/ सूर्यभानु गुप्त
शाम टूटे हुए दिल वालों के घर ढूँढ़ती है,
शाम के वक़्त कभी घर में अकेले न रहो !
शाम आयेगी तो ज़ख़्मों का पता पूछेगी,
शाम आयेगी तो तस्वीर कोई ढूँढेगी.
इस क़दर तुमसे बडा़ होगा तुम्हारा साया,
शाम आयेगी तो पीने को लहू माँगेगी.
शाम बस्ती में कहीं खू़ने-जिगर ढूँढ़ती है,
शाम के वक़्त कभी घर में अकेले न रहो !
याद रह-रह कर कोई सिलसिला आयेगा तुम्हें,
बार-बार अपनी बहुत याद दिलायेगा तुम्हें.
न तो जीते ही, न मरते ही बनेगा तुमसे,
दर्द बंसी की तरह लेके बजायेगा तुम्हें.
शाम सूली-चढ़े लोगों की ख़बर ढूँढ़ती है,
शाम के वक़्त कभी घर में अकेले न रहो!
घर में सहरा का गुमां इतना ज़ियादा होगा,
मोम के जिस्म में रौशन कोई धागा होगा.
रुह से लिपटेंगी इस तरह पुरानी यादें,
शाम के बाद बहुत ख़ूनखराबा होगा.
शाम झुलसे हुए परवानों के पर ढूँढ़ती है,
शाम के वक़्त कभी घर में अकेले न रहो!
किसी महफ़िल, किसी जलसे, किसी मेले में रहो,
शाम जब आए किसी भीड़ के रेले में रहो.
शाम को भूले से आओ न कभी हाथ अपने,
खु़द को उलझाए किसी ऐसे झमेले में रहो.
शाम हर रोज़ कोई तनहा बशर ढूँढ़ती है,
शाम के वक़्त कभी घर में अकेले न रहो!