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शाम ढलते ही तेरी याद जो घर आती है / कविता विकास
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शाम ढलते ही तेरी याद जो घर आती है
एक ख़ामोशी मेरे दिल में उतर आती है
ज़िंदगी कब किसे मिलती है मुकम्मल यारों
कुछ न कुछ इसमें कमी सबको नज़र आती है
आँसुओं का ये समंदर है उमड़ पड़ता जब
तेरी यादों की वह तूफ़ानी लहर आती है
खौफ़ वहशत का है इस मुल्क में छाया ऐसा
शब रूमानी न सुहानी–-सी सहर आती है
टूट जाती हूँ कभी तो कभी जुड़ जाती हूँ
ज़ीस्त जब लाख झमेले लिये घर आती है
आइने पर है पड़ी धूल ज़माने-भर की
अपनी सूरत भी कहाँ साफ़ नज़र आती है
सच्चे दिल से तुम्हें आवाज़ है दे के जाना
इक सदा सच में तेरे दर से इधर आती है
झूम उठते हैं खुशी से ये शज़र पतझड़ के
बदलियों की जो उन्हें नभ से ख़बर आती है