शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए,
सतरंगीं सुबहों के खिंचते खुलते बंधते तार नए
ख्वाहिश जैसी उन आंखों में चाँद न था चौपाटी थी,
और लबों पर साफ़ लिखे थे लज्ज़त के इज़हार नए
ताज महल से उस गुम्बद पर चाँद कहाँ जा कर डूबा
खोल दिए जब मेरे अन्दर उसने मेरे मज़ार नए
खोलो हाथ! चले पुरवाई, आने दो बारिश, भीगें
बर्के बदन से झाँक रहे हैं रौशन रंग हज़ार नए
तलअत यह दुःख तो मेहनत की रोटी का इक हिस्सा है
बेच के अपने तन के कपडे घर में रख औज़ार नए