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शाम होते ही तेरा इन्तज़ार रहता है / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

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शाम होते ही तेरा इन्तज़ार रहता है ।
यार ! तू कौनसे दरिया के पार रहता है ।

कोई पूछे तो ढली साँझ के दीये से कभी,
fकसलिए उसपे सरे शब<ref>पूर्ण राfत्र</ref> निखार रहता है ।

उनके साये में रहे प्यार को हमने यूँ जीया,
ज्यों गुलाबों की पनाहों में ख़ार<ref>काँटे</ref> रहता है ।

वही समझेगा उम्मीदों का वफ़ा से रिश्ता,
जिसके दिल में सदा परवरदिगार<ref>-ईश्वर, प्रियपात्र </ref> रहता है ।

उम्र ठहरे न दिलासों की इसलिए चुप हैं,
ख़ूब नज़दीक वरना ग़मगुसार<ref>दुःख बाँटने वाला</ref> रहता है ।

धूप ढलते ही कई अक़्स<ref>परछाई</ref> उभर आते हैं,
किसका यादों पे भला इख़्तियार<ref>वश</ref> रहता है ।

लम्हे-ओ-वस्ल<ref>fमलन के क्षण जज़्बात</ref> में जज़्बात<ref>भावनाएँ</ref> निहाँ<ref>गुप्त, छुपे हुए</ref> कैसे रहें,
दो निगाहों से सभी आशकार<ref>प्रकट</ref> रहता है ।

कौन रोकेगा उन आँखों से छलकते ग़म को,
उसके दिल में तो कोई आबशार<ref>झरना, जलप्रपात</ref> रहता है ।

प्यास की सरज़मीं<ref>धरती</ref>-सी हो गई हयात<ref>जीवन, ज़िन्दगी</ref> उसकी,
अब तो ख़्वाबों में भी बस रेगज़ार<ref>रेfगस्तान, मरुस्थल</ref> रहता है ।

यूँ दिलशाद<ref>प्रसन्न हृदय</ref> फ़लक<ref>आसमान</ref> पर हैं बहुत से तारे
एक सैयार<ref>नक्षत्र</ref> मगर बेकरार<ref>बेचैन</ref> रहता है ।।

शब्दार्थ
<references/>