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शायद के मर गया मेरे अंदर का आदमी / ख़ालिद महमूद
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शायद के मर गया मेरे अंदर का आदमी
आँखें दिखा रहा है बराबर का आदमी
सूरज सितारे कोह ओ समंदर फ़लक ज़मीं
सब एक कर चुका है ये गज़ भर का आदमी
आवाज़ आई पीछे पलट कर तो देखिए
पीछे पलट के देखा तो पत्थर का आदमी
इस घर का टेलिफ़ोन अभी जाए जाएगा
साहब को ले के चल दिया दफ़्तर का आदमी
ज़र्रे से कम-बिसात पे सूरज-निगाहियाँ
‘ख़ालिद’ भी अपना है तो मुक़द्दर का आदमी