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शायद मेरी निगाह को करता है वह निहाल / अबू आरिफ़

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शायद मेरी निगाह को करता है वह निहाल
आया किसी शहर से ऐसा परी जमाल

शायद उसे मालूम नहीं अपना ख़द्द-ओ-ख़ाल
शायद उसे मजबूरियों ने कर दिया निढाल

शायद उसे तलाश है प्यासों की भीड़ में
ज़ब्त-ओ-शऊर जिसमे हो वह रिंद बाकमाल

शायद भटक गया है वह राह-ए-जुनून से
उसका ही हो रहा हो उसे रंज-ओ-मलाल

शायद उसे तनहाइयों से रब्त बहुत है
समझे वह शब-ए-हिज्र को ही शब-ए-विसाल

शायद उसे जुगनू ही हमराज़ लगे है
तारीकी से बचने को बनाया हो उसे ढाल

शायद उसे फूलों की रंगत से इश्क़ हो
बुलबुल के साथ गीत को गाये वह ख़ुशख़याल

शायद उसे नज्जार-ए-फितरत से इश्क़ है
सो रोज़ सुबह करता है उससे वह कुछ सवाल

शायद उसे कुछ टूटे हुए दिल से लगाव है
सो पूछ रहा है वह ज़माने से मेरा हाल

शायद उसे दीवानगी लगती है अब फज़ूल
होता है उसे परवाने के जलने का भी मलाल

शायद उसे ज़माने से कुछ रस्म-ओ-राह है
दीवानगी में रहता है आदाब का ख़याल

शायद कभी होटों पे तबस्सुम भी रहा है
चेहरे पे रहा होगा कभी हुस्न पुरजमाल

शायद कभी शरमाती रही हो शरर उससे
चश्म-ए-हया में उसके रहा हो कोई कमाल

शायद इसी गेसू से उठती हो घटा भी
बादल सा बरस जायेगालगता है हर एक बाल

शायद इन्हीं होटों पे मचलती हो सबा भी
रुख़सार यही लगते हैं ज़माने में बेमिसाल

शायद उसे आरिफ़ से पहले थी शिकायत
पर आज हो गया है उसी का ही हमख़याल