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शायद मेरी निगाह में कोई शिगाफ़ था / अशअर नजमी

शायद मेरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
वरना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था

इक लाश तैरती रही बर्फ़ीली झील में
झूठी तसल्लियों का अमीं ज़ेर-ए-नाफ़ था

बोसों की राख में थे सुलगते शरार-ए-लम्स
चेहरे की सिलवटों में कोई इंकिशाफ़ था

दोज़ख के गिर्द गूँगें फ़रिश्ते थे महव-ए-रक़्स
और पिस्लियों की टीस पे मिला गिलाफ़ था

खिड़की से झाँकता हुआ वो पुर-ग़ुरूर सर
ताज़ा हवा से उस का कोई इख़्तिलाफ़ था

रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
अपनी शिकस्त का मुझे क्यूँ एतराफ़ था