शायद यही एक जरिया है मेरे प्रतिकार का / अंजू शर्मा
फिल्म चलती है,
समेटती है जाने कितने ही दृश्यों को
एक डायलोग से शुरू हो ख़त्म हो जाती है
एक डायलोग पर,
मध्यांतर में भी उभरते हैं कितने ही दृश्य,
एक तानाशाह डालता है अपना जाल
और हर बार फंस जाते हैं तेल के कुछ कुँए,
वहीँ सर झुकाए खड़ा है कोई आखिरी गोली की तलाश में,
लिए हुए अपने नाम और कारनामों की तख्ती,
ये धमक, आवाज़ है गिरा दी गयीं
चंद आस्थाओं की
जो खड़ी थी सदियों से बामियान में,
जैसे रेत की तरह गिर जाता है एक मुजस्मा,
जो नहीं जानता खुद की पहचान और देखता है
खून भरी आँखों में अपने नए नए नाम,
एक शहंशाह बांटता है सहायता, क़र्ज़ और समर्थन के
रंगीन गुब्बारे,
बदले में भर लेता है अपनी जेबें स्वाभिमान, आज़ादी और
कटी हुई जबानों से,
कहीं एक मजबूत पहाड़ की गौरान्वित चोटी
बदल जाती है छोटे कमजोर पत्थरों में,
जिनसे खेल रहे हैं कुछ नामालूम लुटेरे
और लिख रहे हैं जमीनों पर कभी न मिटने वाली इबारतें,
और बदल जाती हैं हजारों जिंदगियां जीरो ग्राऊंड में,
कुछ लोग तब पोपकोर्न खाते है, कुछ ऊंघते हैं,
कुछ दबाते हैं अपनी चीखों को,
तब मेरी गूंगी ज़बान और कांपते हाथ
ढूँढ़ते है कागज़,
शायद यही एक जरिया है मेरे प्रतिकार का...