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शायद / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल

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शायद मैं
          उस दिन से बहुत पहले
पुल के आख़िरी सिर पर झूलता हुआ
छोड़ूँगा अपनी पछाईं डामर की सड़क पर ।

शायद मैं
          उस दिन के बहुत बाद
अपनी सफ़ाचट्ट ठुड्डी पर
          खिचड़ी दाढ़ी के कुछ बाल लिए
                  जीता-जागता बचा होऊँगा,

और मैं
          उस दिन के बहुत बाद
                 जीवित बचा रहा अगर
दीवारों की टेक लिए
          शहर के चौराहों पर
                    छट्टी की शामों में बजाऊँगा वायलिन
उन बूढ़े लोगों के लिए
          मेरी ही तरह जो जीवित बच गए होंगे
                                   अन्तिम संघर्ष में ।

उस अद्भुत्त रात में
          रोशन पगडण्डियाँ होंगी हमारे चारों ओर
और पदचापें होंगी
          नए नग़्मे गाते हुए नए लोगों की ।

1930

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल