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शाश्वत जीवन-मूल्यों का अद्भूत चितेरा / माधव कौशिक

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श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’ जी का नाम आते ही स्मृति में जिस साहित्यकार की छवि कौंधती है, उस कद-काठी का रचनाकर पूरे परिवेश में दृष्टिगोचर नहीं होता। भिवानी शहर के लिए सत्तर तथा अस्सी का दशक साहित्य की दृष्टि से स्वर्णयुग जैसा था। श्री उदयभानु हंस, राज्यकवि हरियाणा, उर्दू के चर्चित शायर श्री बी डी कालिया; सतनाम सिंह ख़ुमार, कोकब जी, वियेन्द्र गाफ़िल, कैलाश शहीं, रघुबीर प्रसाद सरल जी जैसे हिन्दी-उर्दू के दर्जनों कद्दावर रचनाकार और कवि उस समय भिवानी में सक्रिय थे। आये दिन बड़े-बड़े कवि-सम्मेलनों और मुशायरों का आयोजन होता रहता था। साहित्यिक गोष्ठियां जीवन की दिनचर्या का अहम् हिस्सा होती थी। हम जैसे युवा रचनाकारों की जमात पूरी शिद्दत से साहित्य के गुर सीखने में लगी थी।

ऐसे सक्रिय तथा सृजनात्मक माहौल के केन्द्र में केवल एक रचनाकर-कवि ऐसा था, जो सबकी प्रेरणा का स्रोत ही नहीं, अपितु इस सारे कार्य-व्यापार का नियंता प्रतीत होता था। साफ-सुथरी छवि, सच्ची-सीधी सोच तथा साहित्य के मर्म और धर्म को अन्दर तक जानने वाली इस विभाूति का नाम था- श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’। जो भी आता सदैव नतमस्तक हो कर आता और अपनी झोली में काव्य के अनुपम रत्न लेकर लौटता।

अक्सर देखा जाता है कि विद्वान साहित्यकार अहंकार के़ वशीभूत हो अपने से छोटों को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। किन्तु मधुप जी इसका अपवाद थे। नए से नए लेखक के सामन भी उनका स्वरूप उतना ही आत्मीय रहता था जितना अपने समीक्षकों के साथ। काव्य की गहराइयों तथा बारीकियों को समझाने के लिए सदैव तत्पर रहते थे वो। उनके सान्निध्य में जाने कितने कवियों ने स्वयं को प्रतिष्ठित होते हुए देखा।

ख़ैर.... आज भी मन मानने को तैयार नहीं है कि मधुप जी हमारे मध्य नहीं हैं। जैसा कबीर ने कहा है कि ‘हम न मरहिं, मरहिं संसारा। सच ही तो है मधुप जी जैसे कवियों को कौन दिवंगत कह सकता है।

भाई राजेश चेतन के सौजन्य से जब मधुप जी की कृति ‘कारवां उम्मीद का’ प्राप्त हुई तो लगा जैसे उनकी धीर-गंभीर आवाज़ नेपथ्य से गूंज रही है। उन जैसा काव्य-पाठ तथा कवि सम्मेलनों का संचालन करने वाला है ही कहां। विशुद्ध काव्य की ऐसी अखंड रसधारा का प्रवाह देखे मुद्दतें हो गई हैं।

मधुप जी ने काव्य की लगभग हर विधा में अनी प्रतिभा के जौहर दिखाए हैं। गीत, कविता, दोहा, ग़ज़ल सभी उनकी लेखनी के संस्पर्श से जीवन्त हो उठते हैं।

इस संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रते हुए पाठकों को मधुप जी की काव्य-प्रतिमा का सहज ही अनुमान हो जाएगा। भाषा का लालित्य तथा चिन्तन की गंभीरता दोनों को एक साथ देखना एक सुखद अनुभव होता है। मधुप जी की इन ग़ज़लों में पूरे भारतीय समाज का चित्रण संपूर्ण जटिलता तथा वैविध्य के साथ हुआ है। रचनाकार मानव मूल्यों के प्रति इतना प्रतिबद्ध है कि वह समाज के पतन के प्रत्येक पहलू को निरावृत करना चाहता है। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण,उद्दण्डता तथा अनास्था कवि को उद्वेलित करती है। मूल्यों के क्षरण का दंश उनकी हर काव्य पंक्ति में देखा जा सकता है।

पतन के गर्त में उत्थान क्यों है, हम नहीं समझे

बना अभिषाप हर वरदान क्यों है, हम नहीं समझे


दो रोटी के लिए भटकता फिरता कोई

पास किसी के सदियों का सामान हो गया


नित्य नई मनती दीवाली, नभचुम्बी प्रासादों में

झोपड़ियों में जल पाए हैं सुख के अभी चिराग़ नहीं


क़दम-क़मद पर रावण हैं

रोज़ हो रहा सिया-हरण

समाज का यथार्थ चित्रण करते हुए प्रायः कवि निराशा तथा हताशा में डूब कर स्वयं को पराजित अनुभव करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि समाज से नकारात्मकता के कलुष को मिटा पाना अंसभव है। किन्तु श्री महावीर प्रसाद मधुप जी की कविता कड़वे से कड़वे यथार्थ के विवेचन व विश्लेषण के पश्चात् भी आत्मजयी बनी रहती है। उनकी सकारात्मक सोच तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोध उन्हें सदैव संघर्षरत रखते हैं। उनकी कलम आस्था का पांचजन्य बन कर उद्घोष करती है-

कभी न ऐसे दीप बुझेंगे

जो आंधी के बीच जले हैं


कर्णधारो देश के जागो ज़रा

नींद गफ़लत की बहुत दिन सो लिए


उठ के अदना से आला हुआ ‘मधुप’

साथ छोड़ा नहीं जिसने संघर्ष का

इस संग्रह की ग़ज़लों का अनुशीलन करने पर यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि मधुप जी ने इन सबकी रचना सत्तर के दशक में की थी। दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल-संग्रह के प्रकाशित होन से पहले की इन ग़ज़लों का मुहावरा समकालीन ग़ज़ल के मिज़ाज को कितनी शिद्दत से प्रस्तुत करता है, यह वास्तव में सराहनीय है। मानवीय संघर्ष की अदम्य जिजीविषा तथा समाज को बदलने की तीव्र आकांक्षा मधुप जी की काव्य-संवेदना का सर्वप्रमुख सरोकार बन कर सामने आता है।उनकी ग़ज़लों का शिल्प-सौष्ठव आज के ग़ज़लकारों के लिए प्रेरणा-स्रोत की तरह है। सीधी-सादी सामान्य जन की भाषा को श्रेष्ठ सृजनात्मक भाषा के स्तर तक पहुंचाने वाला बिम्ब विधान मधुप जी की काव्य प्रतिमा का एक और उदात्त पक्ष प्रस्तुत करता है।

मधुप जी की इन ग़ज़लों में आम आदमी की आशा-निराशा, उसकी इच्छा-आकांक्षा, उसके संघर्ष तथा उसके सपनों के इंद्रधनुषाी रंग देखे जा सकते हैं। समाज की विसंगतियों तथा विद्रूपताओं का चित्रण करते हुए उनके सामाजिक सरोकार इतने स्पष्ट होकर सामने आते हैं कि आम आदमी तथा उसकी पीड़ा का विश्वसनीय वक्ता प्रतीत होने लगता है। साहित्य में इस तरह की विश्वसनीयता तथा पारदर्शिता को ही श्रेष्ठ कविता माना जाता है।

श्री महावीर प्रसाद मधुप जी के इस संग्रह को पाठकों तक पहंुचाने में उनके परिवारजनों तथा भाई राजेश चेतन ने जिस निष्ठा का परिचय दिया है, उसके लिए हिन्दी काव्य-जगत् उनका ऋृणी रहेगा। यह संग्रह शाश्वत जीवन-मूल्यों को सार्थक वाणी प्रदान करने वाले उस महान कवि-साहित्यकार की स्मृति को अक्षुण्ण रखेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

-माधन कौशिक

सचिव,

चंड़िगढ़ साहित्य अकादमी