भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शिकवा बतर्ज़े-आम नहीं आपसे मुझे / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
शिकवा बतर्ज़े-आम नहीं आपसे मुझे
नाकाम हूँ कि काम नहीं आपसे मुझे
कहता सुलूक आपके, एक एक से मगर
मतलूब इंतकाम नहीं आपसे मुझे
ए मुंसिफो हक़ाइको-हालात से अलग
कुछ बहसे-खासो-आम नहीं आपसे मुझे
ये शहरे-दिल है शौक़ से रहिये यहां मगर
उम्मीदे-इंतज़ाम नहीं आपसे मुझे
फ़ुर्सत है और शाम भी गहरी है किस क़दर
इस वक़्त कुछ कलाम नहीं आपसे मुझे।