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शिकस्ता आइनों की किरचियाँ अच्छी नहीं लगतीं / मोहसिन नक़वी

शिकस्ता आइनों की किरचियाँ अच्छी नहीं लगतीं
मुझे वादों की खाली सीपियाँ अच्छी नहीं लगतीं

गुजिश्ता रुत के रंगों का असर देखो कि अब मुझको
खुले आँगन में उड़ती तितलियाँ अच्छी नहीं लगतीं

वो क्या उजाड़ नगर था जिसकी चाहत के सबब अब तक
हरी बेलों से उलझी टहनियां अच्छी नहीं लगतीं

दबे पाओं हवा जिनके चिरागों से बहलती हो
मुझे ऐसे घरों की खिड़कियाँ अच्छी नहीं लगतीं

भले लगते हैं तूफानों से लड़ते बादबाँ मुझको
हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं

ये कह कर आज उस से भी तआल्लुक तोड़ आया हूँ
मेरी जाँ मुझको जिद्दी लड़कियां अच्छी नहीं लगतीं