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शिकायत / प्रदीप कुमार
Kavita Kosh से
जो छिपा लेती थी
अपनी हंसी
किताबों के पीछे
कि कहीं कोइ फिर शिकायत न कर दें।
कभी बारिशों में
गुनगुनाती ग़ज़ल।सी
दबा लेती अपने अल्फाज़ों को अक्सर
कहीं कोई जैसे फिर आह न भर दें
वो ज़िदगी की किताब के पन्ने पलटती
वो बहती नदी में घिरी एक कश्ती
जिसके किनारे कभी नहीं मिलते।
मधुर गीत।संगीत रचती हमेशा
ख्वा़बोें को फिर जो मकरंद कर दें
जो छिपा लेती थी
अपनी हंसी
किताबों के पीछे
कहीं कोइ फिर शिकायत न कर दें।