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शिकार / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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भोर—
आकाश का रंग घासपतंगे की देह-सा नरम और नीला
चारों ओर अमरूद और झींगे के पेड़ तोते के पंख जैसे हरे।
गाँव-टोले के चौपाल पर बैठी, किसी भोली लड़की की तरह
एक तारा अभी भी आकाश में है....
या कि, मिस्र की मानुषी ने अपने वक्ष की
जो मुक्ता, मेरे नीले मद के गिलास में डाली थी
वैसा ही एक तारा अभी भी जल रहा है...
हज़ारों साल पहले की एक रात में उसी तरह —
बर्फ़ीली रात में देह गरमाये रखने के लिए
गाँव वाले रात भर मैदान में जो आग जलाए हुए थे —
मोरग फूल की तरह लाल-लाल आग,
सूखे अश्वत्थ के मुड़े पत्तों में अभी भी उनकी आग जल रही है...
सूर्योदय में उसका रंग अब कुमकुम की तरह नहीं
हो गया है — मैनी के सीने में विवर्ण की इच्छा की तरह...
भोर की रोशनी में शिविर के चारों ओर — टलमल
मोर के हरे नीले पंखों जैसे....
आकाश और जंगल कौंध है।

भोर —
सारी रात चीता बाघिन के हाथ से स्वयं को बचाए-बचाए
नक्षत्रहीन, मेहघ्नी अन्धकार में सुन्दरी के वन से
अर्जुन के जंगल में भागते-भागते
सुन्दर बादामी हिरण इस भोर की राह देख रहा था...
आया है वह : भोर के उजाले में उतरकर
खा रहा है कच्चे बातावी-सी सादी सुगन्धित घास ।

नदी की तीक्ष्ण कँपकँपाती लहर में वह उतरा —
निद्राहीन, थका विह्वल देह को óोत की तरह आवेग देने के लिए,
अन्धकार की ठण्डी सिकुड़ी नसें तोड़कर
भोर की रोशनी में विस्तीर्ण उल्लास पाने के लिए,
नीले आकाश तले सूर्य की सुनहरी वर्षा में जगकर
साहस से साधता है सौन्दर्य, हिरणी-दर-हिरणी को रिझाने के लिए ।

...अजब एक चिरती हुई आवाज़ गूँजती है।
नदी का जल मचका (एक लाल बड़े फूल का नाम) फूल की तरह लाल हो उठा
आग जला, उष्ण हरिण का मांस पक आया लाल-लाल
नक्षत्र के नीचे घास के बिछौने पर बैठे-बैठे
नये-पुराने क़िस्से
सिगरेट का धुआँ,
कई पसरे लोगों की पेशानियाँ
इधर-उधर बिखरी पड़ी बन्दूके़ं
बर्फ़-सी, ख़ामोश और बेगुनाह नींद...?