शिकार / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
भोर;
किसी झींगुर के कोमल नीले गात सा पसरा आकाश :
चारों ओर अमरुद टूंगते सुग्गे के पंखो सी बिखरी हरियाली।
एक तारा था तब भी आकाश में
कोहबर जाती किसी सकुचाती नववधू की माँग की सिंदूर सा;
या शायद मिश्र की किसी सुंदरी के गले की मुक्ता
मानो आ पड़ी हो मेरे नीले शराब में
हज़ारों साल पहले उस रात जैसे -
एक अकेला तारा जल रहा था अभी भी आकाश में।
सूर्य रश्मियाँ रही नहीं अब कुंकुम सी;
हो गई किसी रोगी गौरैये की विवर्ण इच्छा सी।
चारों ओर शिशिर से कांपते वन और आकाश
झिलमिला रहा हो हरे-नीले मोरपंखों सा।
भोर;
सारी रात खुद को चीतों-भेड़ियों से बचता बचाता
महोगनी सी नक्षत्रहीन अंधकार में ही
चीड़ के जंगल से सालवन तक घूमता
इसी भोर को तो ताक रहा था वो सुन्दर बादामी हिरण!
सुबह की आलोक में निकल पड़ा वो
नींबू के कच्चे पत्तों सी नर्म हरी घास टूंगने;
नदी के तीक्ष्ण शीतल लहरों में चला जाता है वो –
क्लांत विह्वल उनींदे शरीर में एक आवेग लाने
बर्फीली अंधकार को भेद निकले भोर के धूप सा
एक विस्तीर्ण उल्लास लाने;
नीले आकाश से सुनहरा आलोक बिखेरते सूर्य सरीखे
साहस साध सौन्दर्य से हिरणियों की झुंड को चकित करने।
एक अद्भुत शब्द।
और नदी का पानी हो उठा लाल।
जल उठी आग – तैयार हो उठा हिरण का लाल उष्ण माँस।
खुले आसमान के नीचे घासों के बिछौने पर बैठी
शिशिर की भीगी रातों की अनेक पुरानी कहानियाँ;
सिगरेट का धुआँ;
कुछ मानव सिर;
और उसके भी ऊपर निकलती कुछ बंदूकें – ठंडी – निस्पंद - निरपराध – ऊँघती हुई।