शिखंडियों का है शासन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
भारत माँ के नेत्र सजल हैं घोर व्यथित है अन्तर्मन।
भरतवंश की प्रखर चेतना मौन न जाने है क्योंकर?
हतभागी-सा हुआ मन्द क्यों सिंह गर्जना वाला स्वर?
शिथिल हुए संकल्प आचरण के भी चरण हुए चंचल
ज्वालामुखी स्वार्थ के फूटे झुलस रहा परमार्थ विकल
धृतराष्ट्रों का वंशवाद है पांडव भटक रहे वन वन,
भारत माँ के नेत्र सजल हैं घोर व्यथित है अन्तर्मन।
हाय! सभ्यता के कोमल कर विवश तोड़ते हैं पत्थर
दो अक्षर की भूख न होने देती हैं जिनको साक्षर
अन्धकारमय होकर जीवन, जीवन से कट जाता है
फुटपाथों से घर तक कितने टुकड़ों में बट जाता है
तथाकथित नाथों के युग में है अनाथ भू का क्रदन,
भारत माँ के नेत्र सजल हैं घोर व्यथित है अन्तर्मन।
हाँजू हाँजू करते हैं हम और पूँछ भी सहलाते
नहुशों की पालकी ढो रहे दलित न फिर भी कहलाते
नैतिकता की दिशा दशा जबसे चिन्तन से दूर हुई
आर्यधरा पर अपसंस्कृति की उन्नति है भरपूर हुई
खेल रहे हैं सभी आग से कौन करेगा अग्निशमन?
भारत माँ के नेत्र सजल हैं, घोर व्यथित हैं अन्तर्मन।
जयचन्दों की राजनीति ने क्या-क्या नहीं विकास किया
मानसिंह का मान बढ़ाया राणा को वनवास दिया
जाग न पाये अगर अभी हम मन पीछे पछतायेगा
युग परिवर्तन की मशाल को आखिर कौन जलायेगा?
घायल है हिमवन्त विलखता गंगा मैया का जीवन,
भारत माँ के नेत्र सजल है घोर व्यथित हैं अन्तर्मन।
बार बार कर रहे गलतियाँ कुछ तो हाय लजायें हम
आओं भारत माँ के पुत्रो मिलकर शपथ उठाये हम
फिर अपना आर्यत्व जगायें करें संगठन बलशाली
विजय नगर की विजय पताका विजयोन्मुख हो मतवाली
टेर रही है अपनी माटी त्यागें तन्द्रा का आसन,
भारत माँ के नेत्र सजल हैं घोर व्यथित है अन्तर्मन।
अन्तस्तल के कुरुक्षेत्र में छिड़ा महाभारत का रण
स्वप्न हो गयी शान्ति भयंकर नाद पूर्ण धरती कण कण
बिखर गये सद्भाव समन्वय द्वेष दम्भ में हैं फूले
स्वार्थ सिद्धि में फँसे द्रोण कृप निज कर्तव्य धर्म भूले
पड़ा हुआ शरविद्ध भीष्म-प्रण शिखंडियों का है शासन
भारत माँ के नेत्र सजल हैं घोर व्यथित है अन्तर्मन।