शिखण्डिनी का प्रतिशोध-6 / राजेश्वर वशिष्ठ
कुरुक्षेत्र के मैदान में
अब सिर्फ़ धूल ही बची है
जैसे अम्बा के हृदय में बस गया है
दुःख और विषाद !
परशुराम गर्दन झुका कर चले गए हैं
महेन्द्र पर्वत की ओर
और भीष्म दल-बल सहित
वापस लौट रहे हैं हस्तिनापुर !
अम्बा जान गई, स्त्री के लिए न्याय,
समानता और सम्मान
आचार्यों के प्रवचनों का ही विषय हैं
अम्बा इन्हें खोज नहीं पाई
पुरुषों की दुनिया में,
इसलिए अब उसे चाहिए
केवल भीष्म की मृत्यु !
अम्बा ने कुरुक्षेत्र से निकल कर
राह ली श्यामवर्णा यमुना की
जिसके तट पर
उसने आरम्भ किया अलौकिक तप !
बारह वर्ष तक
केवल वायु और पत्रादि का भक्षण करते हुए
सूख कर काँटा हो चली थी अम्बा
पर भरी थी उसके भीतर बदले की आग
जैसे काष्ठ में रहती है अग्नि !
तप के प्रभाव से
उसका आधा शरीर बन गया,
अम्बा नाम की एक नदी
और आधे शरीर से वह बनी
वत्सराज की कन्या,
आश्चर्य, उसे अब भी याद था
अपना अभीष्ट !
इस जन्म में भी
अम्बा करती ही रही तपस्या
हार कर प्रकट हुए भोलेनाथ !
प्रसन्न होकर शिव ने पूछा –-
क्या चाहिए तुझे, पुत्री ?
भीष्म का नाश,
इसके सिवाय
मुझे कुछ नहीं चाहिए, त्रिपुरारी !
तथास्तु, शिव ने कहा,
पर संशय में पड़ गई अम्बा !
प्रभो, मैं स्त्री होकर
कैसे कर पाऊँगी भीष्म का नाश ?
तुम्हारा जन्म होगा राजा द्रुपद के घर
कन्या रूप में ही
तुम स्त्री देह और मन के साथ भी
अवश्य ही प्राप्त करोगी पुरुषत्व
और यह घटनाक्रम याद रहेगा
तुम्हें और भीष्म को भी !
तुरन्त चिता बना कर
भस्म हो गई अम्बा
उसे तो जल्दी थी
भीष्म की मृत्यु बनने की !
इतिहास साक्षी है
स्त्रियाँ कभी नहीं जी पाईं
सिर्फ़ अपने लिए,
वे या तो जीवित रहीं प्रेम में
या उन्होंने किया मृत्यु का वरण
उनके लिए जीवन और मृत्यु
सदा रहे दिन-रात की तरह
एक दूसरे में समाहित
और एक दूसरे से अलग !