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शिखण्डिनी का प्रतिशोध-8 / राजेश्वर वशिष्ठ

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शीत से काँप रही है रात
आसमान में कोहरा छाया है
सैन्य कुटीरों में आराम कर रहे हैं
थके हारे, घायल और बीमार सैनिक
मानवता के विरुद्ध
युद्ध आता है किसी आपदा की तरह !

शर-शैया पर अधजगे हैं भीष्म
वायु में अटका है उनका शरीर
पर मन कब अटकता है ?
उनकी स्मृति में बार-बार तैर रहे हैं
जीवन के अनेक चल-चित्र !

वह कर रहे हैं स्वगत वार्तालाप --
बहुत हुआ भीष्म,
तुमने अच्छा नहीं किया
इतनी लम्बी आयु तक जीवित रह कर,
जो प्रकृति के विरुद्ध है
वह धर्म-सम्मत कैसे होता ?

जीवन और मृत्यु के मानक-चक्र में
तुम्हें नहीं पड़ना चाहिए था देवव्रत,
पाण्डवों और कौरवों का
अपना भाग्य भी तो होगा उनके साथ
क्या आवश्यकता थी तुम्हें उनके लिए
अपवाद बन कर जीने की ?

इस युद्ध में अर्जुन को मारना
असम्भव नहीं था मेरे लिए
पर मैं बंधा हूँ अपने चिन्तन
और संस्कारों के साथ,
माँ सत्यवती के पौत्र
क्यों मारे जाएँ मेरे अस्त्र-शस्त्र से !

सोचते हैं भीष्म,
कृष्ण को भी समझना
आसान नहीं है किसी के लिए,
योगेश्वर जानते थे शिखण्डी के समक्ष
हथियार डाल दूँगा मैं
फिर भी कल रात पाण्डवों को लेकर
उपस्थित हुए मेरे समक्ष
इस प्रार्थना के साथ
कि मैं अब कर लूँ मृत्यु का वरण ।

आज सुबह मैं अपने शिविर से निकला था
माँ गंगा के स्मरण के साथ
चारों ओर बज रहे थे भेरी, मृदंग और नगाड़े
पाण्डव सेना में सबसे आगे था शिखण्डी
और उसके साथ थे
भीमसेन, अर्जुन और अभिमन्यु
तथा पाण्डव पक्ष के अगणित महारथी
और समस्त कौरव सेना खड़ी थी मेरे पीछे !

आज निर्णायक युद्ध का पाठ
पढ़ा कर लाए थे कृष्ण अर्जुन को,
पूरे जोश के साथ लड़ रही थीं दोनों सेनाएँ
बुरी तरह परास्त हो रहे थे कौरव
पर मेरे जीवित होने का अर्थ तो अभी शेष था
और मैं अपनी पूरी शक्ति से
तहस-नहस करने लगा पाण्डव-सेना को
अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार
मैं आज भी वध कर चुका था
दस हज़ार महाबली क्षत्रियों का
बाल-बाल बचे थे अर्जुन
क्योंकि मैं उन्हें मारना नहीं चाहता था !

और अचानक मेरे सामने आ गया शिखण्डी
उसने तीन बाण मारे मेरी छाती में
ज़्यादा कुछ नहीं हुआ मुझे !

शिखण्डी ने ललकारा मुझे –-
धनुष क्यों त्याग रहे हो भीष्म, मुझसे लड़ो
मैं तुम्हारा काल बन कर आया हूँ !

चाहे जितने बाण या अन्य अस्त्र चलाओ मुझ पर
मैं तुमसे युद्ध नहीं कर सकता शिखण्डिनी,
तुम उधार के पुरुष शरीर में
अब भी आत्मा से नारी ही हो
और भीष्म किसी नारी से युद्ध नहीं कर सकता
मैं जानता हूँ तुम अम्बा ही हो
चोट खाई नागिन-सी फुफकारती !

पाण्डवों के अस्त्र-प्रहार से
कट गई थी मेरे रथ की ध्वजा
और शिखण्डी लगातार अपने तीरों से
बेधे जा रहा था मेरा शरीर
मुझे लगा अब मृत्यु का आह्वान कर लेना ही
धर्म के हित में होगा
और इस बीच शिखण्डी की आड़ से अर्जुन ने
अपने तीरों से मेरा रोम-रोम बेध ड़ाला !

मैं रथ से नीचे गिर रहा था तीरों से आबिद्ध
और सूर्य क्षितिज पर लुढ़क रहा था
किसी मृत सैनिक की तरह !

किसी ने कहा –-
लो मृत्यु को प्राप्त हुए भीष्म !
वह नहीं जानता, मेरी इच्छा के विरुद्ध
मृत्यु आ भी नहीं सकती मेरे समीप
मृत्यु को मेरी प्रतीक्षा करनी होगी
अभी कुछ दिनों तक
जब तक सूर्य आ नहीं जाते उत्तरायण में !

शरों में उलझा है मेरा शरीर
युद्ध के रात्रि-विराम के बीच
मेरे आस-पास खड़े हैं सभी योद्धा
प्यास से सूख रहा है मेरा कण्ठ
मैं देखता हूँ अर्जुन की ओर
धरती को बेध कर तीर से
अर्जुन प्रस्फुटित करते हैं शीतल जलधार
और जल से तृप्त होती है मेरी आत्मा
मुँह से अनायास ही निकलता है -- विजयी भव !

मैं नहीं जानता
इस समय कहाँ होगा शिखण्डी
सम्भव है वह मना रहा हो कोई उत्सव !

मेरी मृत्यु के लिए
जितना श्रम किया अम्बा ने
इतिहास जानेगा उसे
शिखण्डी के माध्यम से !

धर्म यदि धर्म है
तो उसका कारण भीष्म नहीं है
उसका कारण निहित है
अम्बा के प्रतिशोध में
जिसने मुझे मृत्यु देकर
धर्म की ध्वजा को
पुनर्स्थापित किया है !