शिखण्डी का ब्याह एवं पुंसत्व प्राप्ति / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
शस्त्र-शास्त्र-मर्मज्ञ वीर-योद्धा प्रतिभावर,
सरल सुशील विनीत शिखण्डी सद्गुण आगर।
नृप हिरण्यवर्मा ने जाना कुँवर मनोहर,
ब्याही अपनी सुता सुन्दरी हर्षित होकर;
किन्तु ब्याह कन्या का था निर्मूल्य निरर्थक,
समझ गये नृप हुआ छलकपट मुझसे भरसक।
' घेार हुआ अन्याय हाय! यह साथ हमारे,
रहे देखते मौन उसे हम नैन उघारे;
किन्तु सुता के जीवन का क्या निर्णय होगा?
ओह! किस तरह स्वर्णकाल उसका व्यय होगा?
आखिर क्योंकर किया द्रुपद ने यह दृस्साहस?
सम्बन्धों का फोड़ दिया क्यों कुम्भ-सुधारस?
अरे! द्रुपद यह कैसा अनुसंधान किया है?
ब्याह सुता से सुता घोर अपमान किया है;
किन्तु जानता नहीं विलक्षण शक्ति हमारी,
काँप उठेगा हृदय देख रण की तैयारी।
अस्त्र-शस्त्र मेरे लेंगे प्रतिशोध भयंकर,
जायेगा तू कहाँ इस तरह अपमानित कर?
मेरा क्रोध प्रवाह नष्ट तुमको कर देगा
खींच महल से अब अंगारों पर धर देगा।
किया घोर अपराध द्रुपद तू पछतायेगा,
दण्ड प्राप्त कर मेरे द्वारा दुख पायेगा। "
" लेकर सैन्य विराट राज्य का घेरा डालूँ,
बन्दी करूँ द्रुपद को उर का ताप मिटा लूँ। "
जान शिखण्डी, शिखण्डिनी है द्रुपद बिचारे-
संकट में पड़ गये, करें क्या दुख के मारे
" क्या असत्य होगा शिव जी! वरदान तुम्हारा?
लगता है अब मिट जायेगा मान हमारा।
घटे न महिमा रंच आपकी यही मनाऊँ।
चिन्ता नहीं रहूँ या मैं तिल-तिल मिट जाऊँ।
नाथ! करो कुछ कृपा सभी संकट टल जायें,
लौटें शत्रु और हम निज अभीष्ट भी पायें।
रहे न उसके दुख, जो आया शरण तुम्हारी,
फिर भी मेरी दशा आपने क्यों न विचारी?
ले त्रिशूल प्रभु! आज शूल मेरे सब हर लो,
मुझ अनाथ की नाथ! आज फिर रक्षा कर लो।
चरणों पर धन-धाम समस्त समर्पण का दूँ,
चाह रहा मन प्राण हृदय सब अर्पण कर दूँ।
किन्तु कोष दृग के ही तो केवल अपने हैं।
इनके सिवा कोष धरती पर सब सपने हैं।
शरणागत को रक्ष देव! निज धर्म निभाओ,
लाज रखो अब मेरी मेरा धर्म अचाओ।
रहते समय कृपा यदि मुझको मिल न सकेगी,
तो जीवन की त्रसित लता फिर खिल न सकेगी। "
नृप हिरण्यवर्मा चल पड़ा सैन्य संचित कर,
लगा घेरने द्रुपदराज्य को शत्रु समझकर।
देखराज्य पर घोर संकटों के घन छाये,
चिन्तित हुआ शिखण्डी ' मेरे कारण आये। "
फलित हुआ माता का दुर्बल पुत्रमोह है,
जिसके कारण नष्ट हुआ सम्बन्ध छोह है।
मैं भी तो माता की आज्ञा टाल न पाया,
क्षणभर का यह हर्ष अपरिमित पीड़ा लाया।
मेरे सिवा और होता यदि कोई कारण,
तो मैं करता घोर युद्ध कर अरि-संहारण,
किन्तु क्या करूँ हाय! लाज मुझको आती है,
आत्म हनन के सिवा न कोई गति भाती है।
आये है जब संकट तो टल भी जायेंगे,
किन्तु न लज्जित मुख अपना हम दिखलायेंगे।
या तो शिव की कृपा मुझे अब पौरूष देगी,
या कर जीवन भग्न दुःख मेरे हर लेगी।
शायद यह भी जन्म व्यर्थ ही अब जायेगा,
क्या मेरा प्रतिशोध न पूरा हो पायेगा?
नये जन्म तक भीष्म प्रतीक्षा करना मेरी,
करके युद्ध समाप्त करूँगी लीला तेरी।
देखूँ कब तक भाग्य बली रहता है तेरा?
नहीं टूटता कब तक दृढ़ जीवन का घेरा?
कब तक फलित न होगा दृढ़ संकल्प हमारा?
अमर नहीं है धरती पर जीवन की धारा।
देखूँ कब तक भाग्य और विपरीत रहेगा?
आखिर कब तक भार दुखों का और बढे़गा।
छिपकर चलूँ विजन में प्राण विसर्जित कर दूँ,
मिटकर स्वयं राज्य कुल का संकट-वर क्षर दूँ।
दो जन्मों से अम्बा का मन अति अशान्त है
धधक रहे हैं प्राण बुद्धि की प्रगति भ्रान्त है।
घोर निराशाओं से पूरित हृदय प्रान्त है,
स्कल दुखों का एक अन्त बस जीवनान्त है।
निश्चित कर निज प्राण त्याग, चल पड़ा शिखण्डी,
ओढ़े लज्जावरण जा रही ज्यों रणचण्डी।
सघन घोर गम्भीर निशा सूने वनपथ पर,
मन्द समीकरण शान्त वनस्थल भद्र भयंकर,
दृग अवरोधक अन्धकार मानो भय विस्तृत,
तमःस्नात निर्जन तरूपादप अविचल चित्रित।
सकल मोह से मुक्त जा रहा जैसे त्यागी,
या कोई अविमुक्त मृत्यु का हो अनुरागी।
कोई सिंह व्याघ्र भक्षण कर ले तो अच्छा,
डस ले व्याल कराल प्राण हर ले तो अच्छा।
चिन्तन करता रहा शिखण्डी निर्जन वन में,
जन्म जन्म बस मिली उपेक्षा ही जीवन में;
किन्तु चाहकर मृत्यु किसी को कब मिल पायी,
अनचाहे ही सदा सभी को लेने आयी।
वह न किसी से भेदभाव करती है तिलभर,
अवसर पाते उठा गोद में लेती सत्वर;
किन्तु न जब तक चुक पाता है जीवन-खाता,
तब तक नहीं मृत्यु का अंचल है मिल पाता।
लिये मृत्यु की प्रबल कामना उर अन्तर में,
निकल गया अतिदूर शिखण्डी वन प्रान्तर में।
देखी गुफा-विशाल अप्रतिम पर भयकारी,
साधन से सम्पन्न शून्य जीवन-सी भारी;
किन्तु उसे भय कैसा वह आया है मरने,
लगा उसी में बैठ शिखण्डी जप-तपक रने।
अविचल बैठा रहा अन्न जल त्याग चुका था,
मोह भंग कर जीवन से वह जाग चुका था।
स्थूणाकर्ण यक्ष की है यह गुफा मनोहर,
लौटा है जो कई दिनों के बाद घूमकर।
देखा तो आश्चर्य चकित रह गया एक क्षण,
' मेरे पीछे कौन पधारा पुरूष विलक्षण?
ध्यानमग्न है शान्त स्निग्ध सुकुमार कुँवर है,
यौवन में तप हेतु हुआ उद्यत क्योंकर है?
सम्भव है जग जाल काल से ग्रसित हुआ हो,
मानवीय दुर्भाव द्वेष से ज्वलित हुआ हो।
कोमल हृदय यक्ष का करूणा से भर आया,
जाग उठा सद्भाव स्नेह अंचल लहराया।
खोले नयन शिखण्डी ने था यक्ष सामने,
सोचा शायद सुन ली मेरी व्यथा राम ने,
किन्तु यहाँ तो दृश्य हो गया उलटा सारा,
चीर मृत्यु का हृदय वह उठी जीवनधारा।
बोला यक्ष ' कुमार किसलिए तप करते हो?
सोनल यौवन कलश अग्नि से क्यों भरते हो? "
' यक्ष! नहीं हूँ मैं कुमार, मैं हूँ सुकुमारी,
दुख का कारण कठिन यही है व्यथा हमारी।
आयी हूँ मैं यहाँ सभी कुछ अपना खोकर। '
व्यथा-कथा सब कहीं यक्ष से अपनी रोकर।
' शिखण्डिनी! हो स्वस्थ न कुछ भी अब चिन्ताकर,
चाह रहा हूँ कब से नारी होने का वर,
किन्तु उदित हो सका आज है भाग्य सितारा,
लैंगिक परिवर्तन हो मेरा और तुम्हारा। '
और यक्ष ने शल्यक्रिया का चमत्कार कर,
किये अंग प्रत्यारोपित शिव वचन सत्य कर,
नारी बनकर, शिखण्डिनी को पुरूष बनाया,
पाकर वर पुंसत्व शिखण्डी अति हरषाया।
' यक्ष! कृपा की है तुमने प्रतिकूल समय पर,
शिव का है वरदान सत्य कितना है सुन्दर।
धन्य धन्य हे यक्ष, प्राण से भी हो बढ़कर
क्या मैं दूँ उपहार रिक्त हूँ सब कुछ पाकर।
व्चन नहीं टालूँगा मैं जीवन में तेरा
तेरा सबकुछ है, जो कुछ भी जग में मेरा।
तुमने कर उपकार जन्म ही नया दिया है,
मुझे सुधाघट देकर खुद विषकुम्भ पिया है,
कौन भला तेरे समान होगा धरती पर,
जो जीवन का स्वर्णकलश दे-दे हँस-हँसकर।
मेरे कारण तुमने अद्भुत त्याग किया है,
जगती को परमार्थ तत्व का अर्थ दिया है।
जीवन देकर मुझ अनाथ को तुमने पाला,
और सदा के लिए ऋणी मुझको कर डाला।
चिन्तित हूँ किस भाँति उऋण तुमसे होऊँगा?
ऋण का भार उठाये तन कब तक ढोऊँगा? '
'नहीं-नहीं युवराज! कृपा है यह शंकर की,
मैं तो बना निमित्त प्रेरणा पा अन्तर की।
कर्त्ता, कारण, क्रिया, कर्म सब कुछ ईश्वर है
उसके पिता कहाँ कुछ भी जग में अक्षर है?
प्रिय युवराज! रूप पर तेरे मोहित होऊँ,
यौवन की धारा में सारा मैंपन खोऊँ;
इससे पहले तात! चले जाओ अपने घर,
जाकर हरो सकल संकट बन समाधान वर।
उदभासित निज पौरूष को सत्यापित कर दो,
माता-पिता श्वसुर परिजन मन हर्षित कर दो।
कटुता मिटे मधुरता की लहराये धारा,
मिट जाये कुल का कलंक सारा का सारा। "
किया यक्ष को नमन शिखण्डी वापस आया,
मानो मरूथल में उन्नत वसन्त लहराया।
सम्भावित संग्राम घोषणा हुई विसर्जित,
मधुर शान्ति के गीत चतुर्दिक थे अनुगुंजित।
नृप हिरण्यवर्मा आनन्दित हुए अपरिमित,
भूल दण्ड को किये अमित उपहार उपस्थित।
शिव का कथन सत्य पाकर सब थे श्रद्धानत,
नहीं मृत्यु का रास, महोत्सव हुआ समुन्नत,
किन्तु शिखण्डी के उर में अब तक थी अम्बा,
धधक रही प्रतिशोध अग्नि की देह प्रलम्बा।
जलता रहा द्वेष दावानल से उर-अन्तर,
और प्रखर हो उठा धरा से होकर अम्बर।
घिरी है यद्यपि ऋतु हेमन्त
धधकता रक्त किन्तु चहुओर,
मन्द हो गया भानु का तेज
ज्वलित है रण का यौवन घोर,
ले रहे लघुता दिवस विशेष
निशा का बढ़ता जाता राज,
चढ़ रहा जीवन रण की भेंट
हँस रही मृत्यु सजाये साज।