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शिखर से / श्रीकान्त जोशी

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शिखर सुनो!
तुम्हारे कलंकों और कारनामों से
इस भूखण्ड के करोड़-करोड़ जन
हज़ार-हज़ार सत्तासीन मन
बे-ईमान हो उठे हैं
विभागों, संस्थाओं, सेनाओं और सेवाओं के अधिपति
सामान्य भृत्य
सड़क-सड़क सहमते हुए जीवन
अपने उजले-उजले दामनों के बावजूद
आत्महीन, संशयाक्रान्त और बे-गुमान हो उठे हैं।
सोचते हैं भाल में खोदते हुए सलवटें
जिस सागरमाथा की तरह हिमोज्ज्वल होना था
वह ही काले अंधकारों से बदतर, बदबूदार है
हम ही क्यों रहें धवल-नवल
क्यों न लें उत्कोच
क्यों न दें साथ उस आतंकजन का
जो शराफ़त के साथ खूँखार है?
यहाँ तो सुन रहे हो न शिखर?
धधक रही है घर-घर
शताब्दियों से बुभुक्षा
जो मिटाई न जा सकी स्वाधीनता की जय से।
हमें हक़ है बे-ईमान होने का
तुम्हारी वजह से।
पर नहीं, हरगिज़ नहीं
टूक-टूक होकर भी टुकड़ों पर नहीं टूटेंगे हम
हटा कर रहेंगे तुम्हें और तुम्हारी गंदगी
कोई राष्ट्र कभी नहीं कर सकता तुम्हारी बंदगी।
हम खड़े रहेंगे अपने पैरों
अपने अभय से,
स्वच्छ करके रहेंगे
विक्रमादित्य का आसन
अपनी आदमीयत
अपने ईमान
यानी
अपने संकल्पों की जय से।
शिखर सुनो!