शिखालेख / गीता शर्मा बित्थारिया
स्त्री संघर्षों को सदैव ही
क्षीण हीन सी दृष्टि से
सरसरी तौर पर
देखते हैं लोग
जैसे निभा रहे हों औचारिकताएं
ये लोग वो हैं
जिन्होंने लिखे हैं
धर्म ग्रंथ और इतिहास
इसलिए स्त्री पात्र
जिन्हें होना चाहिए था
हमेशा से प्रमुख
केंद्र में
हमेशा रहे गौण
हाशिए पर
फिर
लिखा गया
एक ऐसा इतिहास
जिसमें नहीं थे इनकी जीत के विजय गान
एक ऐसा साहित्य रचा गया
जिसमें उनके सौंदर्य के होते रहे बखान
अतिशयोक्ति अलंकार के साथ
लेकिन नकारी जाती रही
इनकी उपलब्धियां
और लिख दिया गया
स्त्रियां क्या नहीं कर पाईं
स्त्रियां बनी रही गहरे अंधे कुएँ
एक अंधेरी सुंरग
जो वहाँ से गुजरा
उसमें झाँकता
वहां आसपास उनके इतिहास का
शिलालेख ढूंढता
पर शायद ही कोई जान पाया
स्त्री जीवन तो होता हैं
किसी और के द्वारा लिखा गया अभिलेख
इसी लिए कहीं नहीं मिलते
उनके सदियों के संघर्षों का कोई विजय द्वार
कहीं नहीं गूंजते उनके गौरव गान के उद्घोष
कहीं नहीं गढ़वाए जाते उनकी अदम्य सामर्थ्य की प्रशस्ति में शिलालेख
स्त्रियों के युद्ध किसी एक व्यक्ति, राजा, राज्य के विरुद्ध नहीं होते
जो लड़े गए थे अपनी सीमाएं को और अधिक विस्तार देने के लिए
जो लड़े गए थे अमुक सदी में अमुक तिथि स्थान विशेष पर
किसी किले को जीतने के लिए
स्त्रियां तो खोखली मानसिकता के सुदृढ़ किलों को ढहाने में युद्धरत रही हैं सदा से
एक संकुचित सोच को हरा देने के संघर्ष में
ताकि विस्तार कर सकें अपने अधिकारों की सीमाएं
घायल सम्मान को कवच बनाए
एक आस लिए
शायद कोई युद्ध बन जाएं उनके द्वारा लड़ा गया और जीता गया
बस वो आखिरी युद्ध
अगर स्त्री देह के भूगोल से विरत होकर कभी देखोगे
तो लिख पाओगे
हर स्त्री को मिली हार जीत के कारणों का इतिहास
मात्र उसकी आंखों में झांक कर
अनंत से अद्यतन
अपने प्रतिदिन लड़े - जीते - हारे युद्ध के
उठाए फिर रही है हर स्त्री की देह
अपने अपने निजी शिखालेख