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शिमला-2/ केशव
Kavita Kosh से
खिडकी से बाहर देखता हूँ
नीली घाटी में
दम तोड़ता
धूप का अंतिम टुकड़ा
घर लौटते बच्चे
छप्परों पर
गाढ़े धूँएँ की तरह
उतरती शाम
दूर कहीं चलने के लिए आतुर
सीटी बहाता इंजन
अँधेरे के बिल में सरकता
अभी-अभी जन्मा
यह शहर
सहसा
करवट बदल
पिघलने लगता है मेरे भीतर
जमा हुआ कुछ
देखता हूँ
बाहर बारिश हो रही है