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शिमला एक यक्ष / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
कभी लगता है
शिमला एक शहर नहीं
जीता जागता वृक्ष है बैठा हुआ
बूढ़ा बीमार और शापित
सिर जिसका जाखू
रिज है पेट
जिसकी आँखों में भरा है पानी
हड्डियों में खोद डाली सुरंगें
दिल में किये गये छेद
कंकरीट की बिल्डिगें
जैसे शरीर में उगे फोड़े
जिनसे बहता रहता
पीक मवाद लगातार
टिड्डी दल से भिनभिनाते आते
हमलावरों की तरह सैलानी
बार-बार छेड़ते दुखते ज़ख्मों को।
देख लिए कई बसन्त
घूम आया अमरावतियां अनंत
देख लिए कई कुबेर कई संत
अब नहीं रही ताकत हिलने की
उठ कर चलने की
दिन भर पड़ा रहता निस्तेज।
कौन नहलाएगा इसे
कौन लगाएगा मरहम
कौन करेगा तीमारदारी।
बावजूद इसके
देह चमकती रात भर
ग्रह की तरह
ख़ुदा ख़ैर करे।