शिमला की गोल मेज़ / रूपा सिंह
तीन कुर्सियाँ थीं, क़रीने से रखीं
दूधिया, सफ़ेद, शफ़्फ़ाक।
बीच में थी एक गोल मेज़
धूसर, धूमिल, सपाट ।
मेज़ के बीचोबीच उँगली फिराओ
तो निकल आता था ख़ून
उँगली ख़्वाबों से भरी थी
ख़ून का रँग काला था ।
स्मृतियों में भरा था लाल धब्बों का इतिहास
छाती में रह-रह धधकती थी बलवे कि आग ।
अतीत के चौराहे पर गोल-मटोल पृथ्वी थी
जो रोती रहती थी ।
उसके बीचोबीच एक हृष्ट-पुष्ट क़ब्रिस्तान था ।
ज़िन्दा रूहों की तड़प से
जिसके सीवन उधड़ते थे ।
इस पार और उस पार के अन्तिम
आदमी के पास थे केवल सवाल
उसका कोई घर न था, न थी बैठने की जगह ।
उसे चलते जाना था कि
उसने सुना था
किसी जादुई आधी आज़ाद रात का ज़िक्र !
कई रातें बीतती गईं थीं, फिर दिन की तलाश में।
भयावह अन्धेरा, पैरों में छाले और था शरीर रक्तपलावित ।
झोले में टँगा कुलबुलाता था ईश्वर
और बचा रह गया था धर्म-परिवर्तन ।
गान्धी, नेहरू, जिन्ना चुप थे ।
कुर्सियाँ अब तक रखीं थीं क़रीने से
दूधिया, सफ़ेद, शफ़्फ़ाक...यथावत !