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शिमला / तुलसी रमण

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पूरब के पहाड़ पर
चढ़ता सुबह का सूरज
धीरे-धीरे उतरती धूप
शहर के मस्तक से
पैर के अंगूठे तक
फिसलता जाता अंधेरा
पश्चिम की ढलानों पर

दरवाज़े पर
शटाक से गिरते
मैदानों से आये समाचार
एक क्षण थर-थराता पहाड़
और चाय की पहली प्याली के साथ
निगल जाता
हत्याओं और
आत्म-हत्याओं के समाचार

रोज सुबह गलरी से गुजरता
रद्दीवाला
पुकारता: खा ली, बो तलाँ..!

उबासियाँ लेता शहर
क्यों पी गई रात इतनी शराब

हर घर में घुस आता क्यों
बारहों महीने जुकाम?
कितना डरा हुआ सा चलता है
हर रास्ता
जाने कब क्या कुछ झपट जाएगा
जाखू का बिगड़ैल बंदर

शो-विंडो के साथ खड़े
दायीं ओर मुस्काते
             शहर के स्वामी
माल की शाम घूमते-घूमते
       बाबू बायें-बायें

ऊपर की जेब में सजाये
रेशमी रूमाल
विलायती उपहार
बस की पुरानी टिकटों
और काम्पोज की गोलियों से
भरी पड़ीं
भीतर की जेबें

ढलान पर उतरती लय:
             कर याद अल्लाह, अल्लाह ई अल्लाह!
             या महबूब, कर अहसान! !
ताल पर सरकते
रशीद, नज़ीर और
अमीन के पाँव
नाड़ियों में तैरता
श्रम का संगीत
ज़मीन में जज़्ब होता पसीना

माल-गोदाम से अनाज-मंडी तक
तीन पीठों पर सवार
चढ़ता तेल का एक ड्रम
तेल से जलता स्टोव
तवे पर पकती रोटी
एक दो तीन चार
एकाध पेट में

दो एक टिफिन में बंद
पहुँच जाती दफ्तर की मेज़ तक

निपटाती फाइलें
बैठकें जुटाती
कुछ बतियाती
और फिर भूख दे जाती
दफ्तर से पैदल लौटते हैं
खाली टिफिन

घिसते जूतों
फटती मोहरियों और
कुहनियों के साथ
बढ़ी हुई दाढ़ियों में
उलझ जाता बीड़ी का धुआँ
बर्फ़ के नीचे सुलगता जाता
मुँह का उजला और
पीठ से काला शहर

गिरजाघर की
जर्जर पसलियों में
दुबकी कहानियाँ
गोरी सड़क के
साबुन स्नान की
बूढ़े ‘गेइटि’ के माथे पर
उभर आती इबारत :
भारतीय और कुत्ते वर्जित हैं

शहर के अंग अंग पर गोदा
गुलामी का इतिहास

लिफ्ट से चढ़ आये
सैलानियों की भीड़ में
आज़ादी सड़कों पर
घिसटती रहती
भिखारी बच्ची
सुबह से शाम

बापू के गले में
टँग जाती एक माला
साल में दो बार
खबरों में
उड़-उड़ जाता शहर
अति विशिष्ट व्यक्तियों के
आराम के नाम
छिन जाती भिखारी की बच्ची से
उसके हिस्से की सड़क
इमारतों के जंगल में
लहू-लुहान टँगा है
एक यीशु देवदार
पैरों में गाड़ दिये सरिये
जिस्म में मेखें
तारों में उलझे
        सिर के बाल

शाख़ से छनकर
बिखर-बिखर नहीं आता चाँद
एँटीना के साये में
            रेत हुआ प्यार
देर से आता वसंत
बहुत जल्दी
निगल लेती बरसात
दबे पाँव घुस आता जाड़ा
             दीवाली की रात
कुछ धूप में चिलकता
बाकी छाया में ठिठुरता शहर
कुछ विलायत में जीता
कुछ देश में

चिमनियाँ उगलती
भीतर का धुआँ
पनालों में बहता
           शहर का मवाद
पश्चिम की पहाड़ी पर
डूबता शाम का सूरज
जाखू की चोटी से
विदा लेती पीली धूप
जिस्म पर अँगारे लिये
रात भर जागता है
खूबसूरती के लिये बदनाम
बाबुओं का शहर