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शिल्पी है कोई कविता / नंदकिशोर आचार्य
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न जाने किस विधि से
वह खोलती है
कब से बन्द पड़े दरवाज़े
चीरती चोरबत्ती से
तहख़ानों, कोनों-अन्तरों के
अँधेरे मेरे
ढूँढ़ लेती है सब कुछ
जो नहीं मालूम था ख़ुद मुझे
होगा वहाँ
—जैसे वहाँ रख कर
वही गई हो भूल
शिल्पी है कोई
कविता
मेरे अँधियारे कोनों को
गुमसुम तराशती
मुझे अपना रूप देती हुई ।
—
8 अप्रैल 2009