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शिल्पी / एकराम अली
Kavita Kosh से
और मूर्तियाँ ...
उसका ख़ालीपन निर्मित करने का
आयोजन है
हाथ, पैर, चेहरे और आँख की पुतलियों को
बार-बार तोड़ना और गढ़ना
पोंछ देना बार-बार
क्योंकि किसी भी तरह
हूबहू बन ही नहीं पाता
तारे की नक़ल को
तारा ही कर देता है चूर-चूर
और फिर से शुरू होती है कोशिशें
नितान्त अपना बनाना चाहो
तो छोटे-से रूप में आता है
इतना-सा, परमसुन्दर -- रे गृहपालित
उपचार से ढँक जाता है रूप
तो फिर क्या बाहर?
खुले आसमान के नीचे?
जंगल में, पर्वत पर, इस मोड़ पर?
कोई छोटी तो कोई इतनी विराट कि
गर्दन ऊँची कर देखनी पड़ती है नीली हँसी
पर नहीं देख पाते
मिट्टी की आँख के आँसू
शिल्पी ने ही देखे हैं
मचान से उतर आने के पहले
ज़मीन पर पाँव रखने से पहले।
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी