शिल्पी / श्रीनिवास श्रीकांत
शिल्पी और उसका हथकरघा
दोनों मिल-जुलकर
बुन रहे पहाड़ी ऊन की / एक सुन्दर चादर
बुना जा रहा ताना-बाना, बेल-बूट
संग-संग बहुरंगी
कुटीर के बाहर
थके हुए वृक्ष के पत्तों पर
प्रहार करती गर्दीली हवा
पर वे नहीं हो रहे उत्तेजित
थका हुआ लग रहा है मौसम भी
सुनाई नहीं दे रही / वो पहले की सी
मधुमक्खियों की गुनगुन
महक भी नहीं है हवा में
जंगली फूलों की
कशमल, कूजो, करौंदा
सब कट गई / उनको वहन करती
झाड़ियाँ
पड़ोस में बड़े शहर के लिए
बनायी जा रही / एक पक्की सड़क
लगे हैं कंकरीट के ढेर
कुटीर के आसपास
इन सबसे अनजान
शिल्पी और उसका करघा
कर रहे लगातार संघर्ष
विलम्बित चल रहा काम
कर्मठ गा रहा अपनी भाषा में
एक मधुर लोकगीत / फूलों के मौसम का
करुणा से भरा
खट...खट...खट
चल रहा हथकरघा
आवाज़ का सर्प / रेंग कर चुप हो जाता
कुछ दूर तक
गूँजने लगता / चिमचिम चिमचिम
पार्श्व में झिंगुरों का
समवेत स्वर
अकेलेपन को / और गाढ़ा करता ।।