भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिवरात्रि / रामदरश मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज शिवरात्रि है
शहर के बंद कमरे में बैठा हुआ
जान रहा हूँ कि आज शिवरात्रि है
बाहर सड़क से कुछ अधेड़ नारी-नर जा रहे होंगे मंदिर को
फूल-मालाएँ और लोटे में पानी लेकर
लेकिन मेरा मन है कि बंद होना जानता नहीं
वह त्योहारों को उड़ता हुआ चला जाता है-
वहाँ, जहाँ त्योहार प्रकृति के रंग में रँगे होते हैं
फागुन में पड़ने वाले इस त्योहार का तो कहना ही क्या
रंग-बिरंगे परिधानों में सजी युवा लड़कियाँ
जा रही होती थीं शिव-मंदिर की ओर गाती हुई
‘पूजहु शिव को बहुभाँती आज शिवराती’
वे मन ही मन मनोकामना का रंग मिल जाता था
खेतों में उमड़ी हुई फसलें
रंग-बिरंगे फूलों के स्वर में गा रही होती थीं-
किसानों के लिए शिव गीत
फागुनी हवाएँ फसलों की सुगंध लिये आती थीं
और गाँव में बिखेर देती थीं
लगता था फसलों के ऊपर वितान तना है आभा का
किसी पेड़ से कोई कोकिल कूक उठता था
और आस-पास का प्रांतर गूँज उठता था-
कुऊ...कुऊ...कुऊ... से
थोड़ी दूर खड़ी होली का उल्लास
इस दिन के उल्लास में मिल जाता था
तो शिवरात्रि का दिन
केवल पूजा का दिन नहीं होता था
वह प्राकृतिक और मानवीय छवियों के
मिलन का भी दिन होता था
ऋतु का संगीत उसमें गूँजता रहता था।
-17.2.2015