शिव गौरी का सपन देना / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
कुंअर गई निज जननि सछाता। वचन अपूर्व एक सुनु माता॥
शिव गौरी सपनंतर दियऊ। लच्छ मुरति की आयसु कियऊ॥
इच्छा भोजन जाय करावहु। तबही मन वांछित फल पावहु॥
वहुत आनंद भई सुनि रानी। कादो मीन वरसु जनु पानी॥
जाय नृपति सों वात जनाऊ। प्राणमती सपना अस पाऊ॥
विश्राम:-
ध्यानदेव हर्षित भयउ, दुहुदिशि विप्रपठाव।
वैरागी सन्यासि सब, न्योतहु जो जैह पाव॥149॥
चौपाई:-
मंडल भरि को परो हंकारा। जादिन भेष अलेख अखारा॥
राजा नेगी जन हंकराऊ। सबसों वचन कहो सति भाऊ॥
आयसु मांगहु अतिथिन केरी। सामग्री सब लावहु ढेरी॥
इच्छा भोजन सब कोउ करई। एको खात ओछ नहि परई॥
भोजन छाजन सब कैह चहिये। ताते बात अगुन मन कहिये॥
विश्राम:-
नेगिन वेग विचारेऊ, कीन्हेउ यज्ञ पसार।
विधि संयुत परबंध तिन, सकल कियो निस्तार॥150॥
चौपाई:-
रवि अथये संझा भौ आई। हित चेरी एक कुंअर बुलाई॥
तासों वात कहा समुझाऊ। सरवर जाहु न काहु जनाऊ॥
कनक थार भरि भोजन लेहू। योगी वरतर ही लै देहू॥
लंग न नगर अतिथि जो करई। धरम टरे वहु पातक चढई॥
आज्ञा होत तुरत चलु चेरी। कनक थार धरि कनक हथेरी॥
विश्राम:-
मैना दीन लखाव करि, कुंअर कियो चित चाह।
सो कामिनि कस होइहै, अस चेरी जेहि पांह॥151॥