भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिशर ऋतु लागै बूढ़ा / मुकेश कुमार यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
वन-उपनवन में कूड़ा-कूड़ा।
पत्ता-पत्ता पेड़ से टुटै।
जेकरा हवा मनमाना लूटै।
फूल पराग लागै रुठै।
भौरा कली रो साथ छूटै।
चारों ओर कूड़ा-कूड़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
बूढ़ा बरगद चादर ओढ़ै।
गरम हवा कोय नञ् छोड़ै।
तोड़ै मरोड़ै हाथ जोड़ै।
एक दोसरा के साथ नञ् छोड़ै।
ठंढा लागै कूड़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
कौवा रो काली आँख।
गोरैया रो मतवाली पांख।
यहाँ-वहाँ करै ताक-झांक।
नाचै मन मयूरा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
चादर तानी।
बूढ़ा बरगद औघड़ दानी।
आज लगै छै केतना ज्ञानी।
दिलवर जानी।
दाता दानी।
सुखलो डाली के मूढ़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
करवट बदली बीतै रात।
मिठ्ठो-मिठ्ठो करै छै बात।
एक दूजा से दिल के बात।
आधी रात।
सर-सर सरकै।
कुछ नञ् झलकै।
फिरकै थिरकै सूड़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
सिसकी-सिसकी तन-मन डोलै।
हौले-हौले आँख भी खोलै।
पंछी आपनो पांख भी खोलै।
कौवा कांव-कांव भी बोलै।
सब रो गांव-गांव डोलै।
पुरबा-पछिया सबके झोलै।
तिलकतरी संग चुड़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
लावा लड्डू।
मावा लड्डू।
सुनी के लागै पिनावा लट्टू।
अबकी लट्टू।
बनी के फट्टू।
बिलकुल चट्टू।
बांटे लागलै।
आपनो मनो से पेड़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।
करकुठ्ठो हरकुठ्ठो टटिया।
चर्र भर्र करै करकी पठिया।
टुटी गेलै अबकी खटिया।
जैबै हटिया।
बेचबै पठिया।
आपनो मनो से लेबै खटिया।
नञ् राखबै वर ढूढ़ा।
शिशर ऋतु लागै बूढ़ा।